इन्सान अगर बनना है, तो वह नजर पैदा कर,
जुल्मो- सितम के दर पे कभी न झुके, वह सर पैदा कर ।
संगठित हो लड़ने के सिवा और कोई रास्ता नही ,
शोषित-आवाम के दिलो में ये समझ इस कदर पैदा कर।
विरोध से विद्रोह तक का सफर हम तै कर के रहे गे ,
अपने हक़ के लिए जो मर मिटे, वह जिगर पैदा कर।
फ़िर न बहाई कोई खून की नदी धर्म जाती के नाम पर,
हैवानो के दिलो में तू दहसत इस कदर पैदा कर ।
जहालत में क्यों है सिर्फ़ मिहनतकसो की ही जिंदगी,
जुल्मी व्यवस्था पे तू ऐसे प्रश्न निरंतर पैदा कर ।
कठघरे में खड़ी है थैलीशाहों जमींदारो की ये जुल्मी हुकूमत ,
मिटा दे जो ये जुल्मी व्यवस्था तू ऐसा तूफानी समर पैदा कर ।
शुक्रवार, ८ ऑगस्ट, २००८
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